पृथ्वीराज रासो मध्यकालीन हिंदी साहित्य का एक महत्वपूर्ण महाकाव्य है, जिसे चंद बरदाई द्वारा रचित माना जाता है। यह ग्रंथ दिल्ली के राजा पृथ्वीराज चौहान के वीरतापूर्ण जीवन और उनकी युद्धों की घटनाओं का वर्णन करता है। पृथ्वीराज रासो की भाषा वीरगाथा काल की प्रतिनिधि भाषा है, जो अपभ्रंश से विकसित होकर पुरानी हिंदी और ब्रज भाषा के निकट मानी जाती है। इस काव्य की भाषा में प्राचीन हिंदी की सरलता और सहजता है, साथ ही कहीं-कहीं संस्कृतनिष्ठ शब्दावली और राजस्थानी भाषा का प्रभाव भी स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।
1. मिश्रित भाषा
पृथ्वीराज रासो की भाषा में हिंदी, अपभ्रंश, संस्कृत, और राजस्थानी का मिश्रण मिलता है। यह उस समय की भाषा विकास की प्रक्रिया को दर्शाती है, जब अपभ्रंश से हिंदी का उदय हो रहा था।
उदाहरण: “बढ़ा चल्यो पृथिवी पतंग, लावण लग्यो गहन्नम संग।”
यह पंक्ति स्पष्ट रूप से दिखाती है कि यहाँ अपभ्रंश और पुरानी हिंदी का प्रभाव है। ‘पृथिवी पतंग’ का अर्थ है पृथ्वीपति (राजा), और ‘गहन्नम संग’ का अर्थ है दुश्मन से लड़ाई के लिए आगे बढ़ना।
2. वीर रस की प्रधानता (पृथ्वीराज रासों की भाषा में)
काव्य की भाषा में वीर रस का विशेष प्रभाव है, जिससे शब्दों का चयन और उनका संयोजन बलशाली और जोशीला बन जाता है। वीर रस की प्रधानता के कारण भाषा में उत्साह, शक्ति और तेजस्विता का संचार होता है।
उदाहरण: “धरा धरम को धुरी अधारा, हारा हरसिद्धि धरास विकारा।”
इस पंक्ति में वीरता और धरम (धर्म) के लिए लड़ाई का वर्णन किया गया है। ‘धरा धरम’ का अर्थ है धर्म की रक्षा करने वाला, और ‘विकारा’ शब्द ‘विकार’ (पतन) को दर्शाता है, जो राजा के पराजय की ओर संकेत करता है।
3. राजस्थानी और अवधी प्रभाव
पृथ्वीराज रासो की भाषा में राजस्थानी और अवधी भाषा का प्रभाव भी देखा जा सकता है। यह उस समय के राजपूतों और उनके दरबार की भाषा को दर्शाता है।
उदाहरण: “देखि चौहान राउ रिसाई, हणि भुज बल जित लौं निहचाई।”
यहाँ ‘राउ’ शब्द राजस्थानी में राजा के लिए प्रयुक्त होता है। ‘रिसाई’ का अर्थ है क्रोधित होना, और ‘निहचाई’ का अर्थ है पूरी तरह से विश्वास करना।
4. संस्कृतनिष्ठ शब्दावली का प्रयोग
चूंकि यह काव्य राजाओं, वीरता, और शौर्य की गाथा है, इसलिए इसमें संस्कृतनिष्ठ शब्दों का भी प्रचुर मात्रा में प्रयोग मिलता है। संस्कृत के कठिन शब्द और वाक्य-विन्यास काव्य की गम्भीरता और उसकी प्रतिष्ठा को बढ़ाते हैं।
उदाहरण: “धरणि धरहि धरम धारा, रन कर प्रबल विहारा।”
इसमें ‘धरणि’ (पृथ्वी), ‘धरम’ (धर्म), और ‘विहारा’ (आंदोलन या गतिविधि) जैसे संस्कृत शब्दों का प्रयोग किया गया है, जो काव्य को भव्यता प्रदान करते हैं।
5. तुकांत और छंद का प्रयोग
पृथ्वीराज रासो की भाषा में छंद और तुकांत का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। छंदों का प्रयोग कविता को सुगम और गेय बनाता है। कवि ने तुकांत शैली में सरल भाषा का उपयोग किया है ताकि वह आम जनता द्वारा आसानी से गायी जा सके।
उदाहरण: “अवध नगर के सरज सुपेला, हरिहर बंस रघुकुल मेला।”
इसमें तुकांत शैली का प्रयोग किया गया है, जिसमें ‘सुपेला’ और ‘मेला’ जैसे शब्द आपस में तुक मिलाते हैं। इससे कविता में लयबद्धता और गेयता का भाव आता है।
6. वीरगाथा शैली
पृथ्वीराज रासो की भाषा वीरगाथा काल की अन्य रचनाओं की तरह वीरता और महाकाव्य शैली को चित्रित करने वाली है। इसमें सरल और सजीव शब्दों का प्रयोग किया गया है, जो कथा की वीरता और संघर्ष को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करता है।
निष्कर्ष
पृथ्वीराज रासो की भाषा में अपभ्रंश, प्राचीन हिंदी, संस्कृत, राजस्थानी और अवधी भाषाओं का अनोखा मिश्रण मिलता है। वीर रस प्रधान होने के कारण इसमें जोश और शक्ति का संचार होता है, और छंद व तुकांत का प्रयोग इसे सुगम और गेय बनाता है। यह भाषा न केवल साहित्यिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि उस समय की सामाजिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों का भी प्रतिबिंब है।