पृथ्वीराज रासो हिंदी साहित्य के वीरगाथा काल का एक प्रमुख महाकाव्य है, जिसकी रचना चंदबरदाई द्वारा की गई मानी जाती है। यह काव्य मुख्यतः 12वीं शताब्दी के महान राजपूत राजा पृथ्वीराज चौहान के जीवन, उनकी वीरता, और उनके युद्धों के इर्द-गिर्द रचा गया है। इस महाकाव्य में पृथ्वीराज चौहान और मोहम्मद गोरी के बीच हुए युद्धों का विशेष रूप से उल्लेख किया गया है, जिसमें पृथ्वीराज की वीरता और धैर्य को चित्रित किया गया है। इस काव्य में वीर रस की प्रधानता है और भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों, वीरता और राष्ट्रप्रेम की भावना को उच्चतम स्तर पर व्यक्त किया गया है।
1. पृथ्वीराज रासों के विषय-वस्तु की विवेचना
(i) पृथ्वीराज चौहान के जीवन और विजयगाथाएँ: महाकाव्य का प्रमुख विषय पृथ्वीराज चौहान के युद्ध और उनकी विजय गाथाएँ हैं। इसमें पृथ्वीराज की वीरता, न्यायप्रियता और साहसिक कार्यों का वर्णन मिलता है। काव्य में पृथ्वीराज की शुरुआती सफलताएँ और उनकी प्रतिष्ठा को दर्शाया गया है, जिसमें उन्होंने दिल्ली और अजमेर पर शासन किया और कई आक्रमणों का सफलतापूर्वक प्रतिकार किया।
(ii) मोहम्मद गोरी से संघर्ष: महाकाव्य का केंद्रीय हिस्सा पृथ्वीराज और मोहम्मद गोरी के बीच की दुश्मनी और संघर्ष पर आधारित है। इसमें पृथ्वीराज द्वारा गोरी को कई बार पराजित करने का वर्णन किया गया है। अंत में, जब पृथ्वीराज की हार होती है और वे बंदी बना लिए जाते हैं, तो उनकी अंधता और गोरी की हत्या की कथा को महाकाव्यात्मक ढंग से प्रस्तुत किया गया है।
(iii) संयोगिता का प्रसंग: पृथ्वीराज रासो में प्रेम का भी एक महत्वपूर्ण स्थान है। इसमें संयोगिता और पृथ्वीराज के प्रेम प्रसंग का वर्णन किया गया है, जिसमें संयोगिता स्वयंवर की कथा प्रमुख है। इस कथा में संयोगिता और पृथ्वीराज का प्रेम, उनका विवाह और राजा जयचंद की विरोधी भूमिका का विस्तार से वर्णन किया गया है।
(iv) वीरता और शौर्य की प्रशंसा: महाकाव्य में पृथ्वीराज की वीरता, युद्धकला और उनके नायकत्व की अद्भुत प्रशंसा की गई है। पृथ्वीराज को न केवल एक महान योद्धा के रूप में, बल्कि एक आदर्श राजा के रूप में भी चित्रित किया गया है, जो अपने राज्य, धर्म, और सम्मान की रक्षा के लिए संघर्ष करता है।
2. काव्य-कौशल की विवेचना
(i) वीर रस की प्रधानता: पृथ्वीराज रासो में वीर रस की प्रधानता है, जो वीरगाथा काल के काव्य की विशेषता है। काव्य में नायक पृथ्वीराज के वीरता, शौर्य, और युद्धकला का अत्यधिक प्रभावी वर्णन किया गया है। युद्ध के दृश्य, राजा के साहस और उसकी रणभूमि में अद्भुत क्षमताओं को चित्रित करने में कवि ने वीर रस का प्रभावी उपयोग किया है।
(ii) सरल और सहज भाषा: महाकाव्य की भाषा सरल और सहज है, जो उस समय की लोकभाषा के निकट है। इसमें संस्कृतनिष्ठ शब्दों के साथ-साथ अपभ्रंश और राजस्थानी भाषा का भी प्रभाव है। यह भाषा न केवल राजाओं और युद्धों के गौरव को व्यक्त करती है, बल्कि आम जनता के बीच इसे लोकप्रिय भी बनाती है।
(iii) संवाद और वर्णन शैली: काव्य की शैली में संवादात्मकता और वर्णनात्मकता का अच्छा संतुलन है। युद्ध के दृश्य, राजा और उनके सहयोगियों के संवाद, शत्रुओं के प्रति शौर्य प्रदर्शन को कवि ने अत्यंत प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया है। कवि ने वर्णनात्मक शैली का उपयोग करते हुए घटनाओं को इतने प्रभावी ढंग से चित्रित किया है कि पाठक को ऐसा महसूस होता है मानो वह स्वयं उस समय में उपस्थित हो।
(iv) अलंकारों का प्रयोग: पृथ्वीराज रासो में अलंकारों का अत्यधिक प्रयोग किया गया है। उपमा, रूपक, अनुप्रास आदि अलंकारों से काव्य में सौंदर्य और प्रभाव का संचार हुआ है। पृथ्वीराज की वीरता, सौंदर्य, और शौर्य के वर्णन में उपमाओं का प्रयोग विशेष रूप से आकर्षक है।
उदाहरण के लिए, पृथ्वीराज की वीरता का वर्णन करते हुए कहा गया है: “सिर कटि भुईं धरि धावता, बहुत दूर धरा धाइ।”
(अर्थ: पृथ्वीराज का सिर काट दिए जाने के बाद भी वे धरती पर दौड़ते रहे।)
(v) छंदों का प्रभावी उपयोग: काव्य में छंदों का प्रभावी उपयोग किया गया है, जिससे रचना की लय और गति बढ़ती है। पृथ्वीराज रासो की अधिकांश रचना ‘दोहा’ और ‘छप्पय’ छंदों में की गई है, जो वीरगाथाओं के लिए उपयुक्त माने जाते हैं। ये छंद युद्ध के दृश्यों और नायक की वीरता को विशेष रूप से प्रभावशाली बनाते हैं।
निष्कर्ष:
पृथ्वीराज रासो का विषय-वस्तु पृथ्वीराज चौहान के जीवन, वीरता, और युद्धकला से जुड़ा हुआ है, जिसमें युद्ध, प्रेम, और संघर्ष का अद्भुत संयोजन है। इसके काव्य-कौशल में वीर रस की प्रधानता, सरल भाषा, संवादात्मकता, और अलंकारों के प्रभावशाली प्रयोग ने इसे हिंदी साहित्य का एक अद्वितीय महाकाव्य बना दिया है।