हिंदी साहित्य में यथार्थवाद: उद्भव, विकास और समकालीन प्रसंग

परिचय (200–300 शब्द)

हिंदी साहित्य में यथार्थवाद (Realism) एक ऐसी साहित्यिक प्रवृत्ति है जो जीवन के वास्तविक, जमीनी और प्रामाणिक अनुभवों को कथा, उपन्यास, नाटक तथा काव्य में समेटती है। यह प्रवृत्ति पाठकों को उस समय-समाज की समस्याओं, अंतर्विरोधों और सांस्कृतिक अंतर्धाराओं के धरातल पर ले जाती है, जहाँ साहित्य केवल मनोरंजन या सौंदर्य-रसास्वादन का साधन न रहकर सामाजिक चेतना जगाने वाला माध्यम बनता है। यह धारणा मौखिक परंपराओं, आदर्शवादी दृष्टिकोणों और काल्पनिक कथानकों से आगे बढ़कर सामाजिक यथार्थ के अनेक आयामों को उद्घाटित करती है।

यथार्थवादी साहित्य का महत्व केवल साहित्यिक इतिहास में ही नहीं, बल्कि आज के विद्यार्थी, शोधार्थी तथा प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वालों के लिए भी है। यथार्थवाद से परिचित होना उन्हें साहित्यिक विकास की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी से जोड़ता है, जो समाजशास्त्र, इतिहास, राजनीति, अर्थव्यवस्था और मनोविज्ञान जैसे विविध अनुशासनों के साथ अंतःक्रिया स्थापित करता है। इस परिप्रेक्ष्य में यथार्थवादी साहित्य न सिर्फ साहित्यिक रचनाओं को समझने में सहायक है, बल्कि समय-समाज के व्यापक विश्लेषण के लिए भी एक ठोस आधार प्रदान करता है।

इस लेख में हम हिंदी साहित्य में यथार्थवाद के उद्भव, उसके विकास, प्रमुख रचनाकारों, विभिन्न साहित्यिक आंदोलनों और समकालीन प्रसंगों पर विस्तार से विचार करेंगे। यह विश्लेषण विद्यार्थियों को शोध के लिए उपयोगी सामग्री उपलब्ध कराएगा तथा परीक्षा की तैयारी के दौरान उनसे जुड़े संभावित प्रश्नों के उत्तरों को बेहतर ढंग से समझने में मददगार होगा।


1. यथार्थवाद की परिभाषा और सैद्धांतिक पृष्ठभूमि

यथार्थवाद एक ऐसी साहित्यिक प्रवृत्ति है जो साहित्य को कल्पना के अतिरंजित रूपों से दूर रखकर सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक सत्यता के धरातल पर निर्मित करती है। सैद्धांतिक रूप से, यथार्थवाद का उदय 19वीं सदी के यूरोपीय साहित्य में हुआ, जहाँ लेखकों ने कुलीन जीवन, धार्मिक आदर्शों और रहस्यवादी कल्पनाओं से हटकर आम जनता के जीवन, श्रमिकों की समस्याओं, शहरी-ग्रामीण विरोधाभासों और औद्योगिक क्रांति के प्रभावों पर ध्यान केंद्रित किया। हिंदी साहित्य में यथार्थवादी प्रवृत्ति का आगमन इसी वैश्विक पृष्ठभूमि और भारत में उपनिवेशवाद, आजादी की लड़ाई, जाति-व्यवस्था, सामंती संबंधों तथा आर्थिक विषमताओं के संदर्भ में हुआ।

यथार्थवादी साहित्य का लक्ष्य घटनाओं, चरित्रों और परिवेश को यथासंभव ‘जैसा है वैसा’ रूप में प्रस्तुत करना है। यह किसी विशेष नीति, विचारधारा या आदर्श को थोपने के बजाय पाठक को सामाजिक समस्याओं के संदर्भ में सोचने के लिए विवश करता है। इससे साहित्य मात्र कलात्मक अभिव्यक्ति न रहकर एक सामाजिक उपकरण के रूप में प्रतिष्ठित हो जाता है।

2. हिंदी साहित्य में यथार्थवादी प्रवृत्तियाँ: आरंभिक चरण

हिंदी साहित्य में यथार्थवाद का प्रारंभिक बीज भारतेन्दु युग (19वीं सदी के उत्तरार्ध) की रचनाओं में दिखता है, जहाँ सामाजिक चेतना की हल्की आहटें मिलती हैं। हालाँकि इस दौर में आदर्शवाद का वर्चस्व अभी भी मजबूत था, किंतु भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र आदि लेखकों के निबंधों, नाटकों और व्यंग्य रचनाओं में सामाजिक कुरीतियों का चित्रण मिलने लगता है। यह काल यथार्थवाद के स्पष्ट स्वरूप का बीजारोपण काल कहा जा सकता है।

3. प्रगतिशील आंदोलन और यथार्थवाद

1936 में प्रगतिशील लेखक संघ के गठन के साथ हिंदी साहित्य में यथार्थवाद को एक सुदृढ़ वैचारिक आधार प्राप्त हुआ। प्रगतिशील आंदोलन का उद्देश्य साहित्य को सामाजिक परिवर्तन का हथियार बनाना था। इस आंदोलन से जुड़े रचनाकार जैसे—यशपाल, अश्क, नागार्जुन, रामविलास शर्मा, सुमित्रानंदन पंत (प्रगतिशील काव्य की ओर रुझान), और भगवतीचरण वर्मा आदि ने शोषण, गरीबी, सामंती उत्पीड़न, साम्राज्यवाद और जातिगत अन्याय के विरुद्ध कलम चलाई। इनकी रचनाओं में किसानों, मजदूरों, दलितों और सर्वहारा वर्ग की समस्याओं का वास्तविक, निर्भीक और आलोचनात्मक विश्लेषण मिलता है।

उदाहरण:

  • यशपाल के उपन्यासों में स्वतंत्रता आंदोलन की गूंज, स्त्री-स्वतंत्रता तथा वर्ग-संघर्ष का यथार्थपरक चित्रण मिलता है।
  • नागार्जुन की कविताओं में ग्रामीण जीवन, गरीबी और शोषण का निर्भीक स्वरूप उभरता है।

4. प्रेमचंद और यथार्थवाद की आधारशिला

हिंदी साहित्य में यथार्थवाद की जब भी चर्चा होती है, तो मुंशी प्रेमचंद का नाम अग्रणी रूप से सामने आता है। प्रेमचंद (1880–1936) ने अपने उपन्यासों—जैसे “गोदान”, “सेवासदन”, “रंगभूमि”—और कहानियों में ग्रामीण जीवन, किसानों की दयनीय स्थिति, जाति-व्यवस्था, धार्मिक पाखंड और आर्थिक विषमताओं को जिस स्पष्टता और संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत किया, उसने हिंदी साहित्य को यथार्थवाद की ठोस जमीन प्रदान की।

प्रेमचंद ने किसी आदर्शवादी समाधान के बजाय जमीनी समस्याओं को ज्यों का त्यों रखने पर बल दिया। उनका मानना था कि साहित्य का उद्देश्य पाठक को समाज की कड़वी सच्चाइयों से परिचित कराना और सुधार के लिए प्रेरित करना है। प्रेमचंद के साहित्य में नायक साधारण मनुष्य हैं, जो समाज की संरचनात्मक कुरीतियों से जूझते हुए जीवन-यापन करते हैं। यह विशेषता यथार्थवाद के मूल सिद्धांतों के अनुरूप है।

5. नई कहानी आंदोलन और यथार्थवादी कथन शैली

1950-60 के दशक में हिंदी साहित्य में ‘नई कहानी आंदोलन’ ने यथार्थवाद की एक नई धारा को जन्म दिया। मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर जैसे कथाकारों ने पारंपरिक कथानक और आदर्शवादी दृष्टिकोण को छोड़कर सामाजिक यथार्थ के नए-नए आयामों को उजागर किया। नई कहानी शहरी मध्यवर्ग, मानसिक द्वंद्व, संबंधों की उलझन, अकेलेपन और अस्तित्व के प्रश्नों को यथार्थवादी धरातल पर प्रस्तुत करती है।

विशेषताएँ:

  • पारिवारिक संरचनाओं का यथार्थचित्रण
  • संबंधों के तनाव और विसंगतियों पर फोकस
  • मनोवैज्ञानिक जटिलताओं का सूक्ष्म विश्लेषण
  • भाषा और शैली में सादगी तथा पारदर्शिता

6. दलित, आदिवासी और स्त्री विमर्श में यथार्थवाद

यथार्थवाद की अवधारणा केवल सामाजिक-आर्थिक स्तर पर ही सीमित नहीं रही, बल्कि दलित साहित्य, आदिवासी साहित्य तथा स्त्री विमर्श के साहित्य में भी गहराई से उतर गई। 1980 और 90 के दशक से आगे बढ़ते हुए लेखकों ने दलित उत्पीड़न, स्त्री-विरोधी संरचनाओं, आदिवासी जीवन की समस्याओं और उनकी सांस्कृतिक पहचान के यथार्थ को केंद्रीय स्थान दिया।

  • दलित साहित्य: ओमप्रकाश वाल्मीकि, धरमवीर भारती, श्योराज सिंह बेचैन जैसे रचनाकारों ने दलित जीवन की कठोर सच्चाइयों को उजागर किया।
  • स्त्री विमर्श: कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी, उषा प्रियंवदा और मैत्रेयी पुष्पा जैसी लेखिकाओं ने स्त्री जीवन के संघर्ष, लैंगिक असमानता, पितृसत्तात्मक ढाँचे और वैवाहिक संबंधों की उलझनों को वास्तविक धरातल पर सामने रखा।
  • आदिवासी साहित्य: आदिवासी समाज से आने वाले लेखकों ने आदिवासी जीवन, उनके शोषण, विस्थापन और संस्कृति पर हो रहे हमलों के यथार्थ चित्र प्रस्तुत किए।

इन विमर्शों ने हिंदी साहित्य में यथार्थवाद को बहुपक्षीय बनाया, जिससे साहित्यिक दृष्टि से हाशिए पर रहे समुदायों की पीड़ा, आकांक्षाएँ और संघर्ष हिंदी साहित्य के केंद्र में आए।

7. समकालीन हिंदी साहित्य और यथार्थवादी लेखन

आज के डिजिटल युग में भी यथार्थवादी रुझान हिंदी साहित्य में अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं। समकालीन रचनाकार—जैसे उदय प्रकाश, संजीव, असग़र वजाहत, अनामिका—ने बदलते शहरी परिदृश्य, उपभोक्तावाद, पर्यावरण संकट, तकनीकी प्रभाव और सामाजिक-राजनीतिक संक्रांतियों को अपनी रचनाओं का विषय बनाया है। इनकी कृतियाँ विश्वग्राम (ग्लोबल विलेज) की अवधारणा, आर्थिक उदारीकरण, आप्रवासन, सांप्रदायिक तनाव और नारीवाद के नए आयामों को यथार्थवादी आधार पर प्रस्तुत करती हैं।

वर्तमान संदर्भ में चुनौतियाँ:

  • साहित्य के बाजारीकरण के चलते यथार्थ को भ्रामक कल्पनाओं के माध्यम से परोसना
  • डिजिटल माध्यमों की तेजी से बढ़ती लोकप्रियता के बीच साहित्यिक गुणवत्ता और गहराई बनाए रखना
  • वैश्विक परिप्रेक्ष्य में अपने समाज की समस्याओं को रेखांकित करते समय सांस्कृतिक विशिष्टता को सुरक्षित रखना

8. आलोचना, विविध दृष्टिकोण एवं यथार्थवाद की सीमा

यथार्थवादी साहित्य की आलोचना भी समय-समय पर होती रही है। कुछ आलोचकों का मानना है कि यथार्थवाद कई बार साहित्य को मात्र सामाजिक दस्तावेज बनाकर उसकी सौंदर्यात्मक गुणवत्ता को कम कर देता है। कुछ विद्वानों का तर्क है कि पूर्ण यथार्थ चित्रण असंभव है, क्योंकि लेखक की दृष्टि, पूर्वाग्रह और मूल्य भी रचना में निहित होते हैं।

वैकल्पिक दृष्टिकोण:

  • आदर्शवाद और यथार्थवाद के बीच संतुलन: कुछ साहित्यकार यथार्थ चित्रण में भी नैतिक आशावाद या आदर्श मूल्यों को स्थान देते हैं।
  • जादुई यथार्थवाद: लैटिन अमेरिकी साहित्य से प्रभावित होकर कुछ हिंदी रचनाकारों ने यथार्थवाद में कल्पनात्मक तत्त्वों का समावेश कर ‘जादुई यथार्थवाद’ को अपनाया है, जहाँ वास्तविकता और कल्पना की रेखाएँ धुंधली हो जाती हैं।

इन दृष्टिकोणों से यह स्पष्ट है कि यथार्थवाद कोई जड़ अवधारणा नहीं है, बल्कि समय के साथ बदलने वाले सामाजिक, सांस्कृतिक और वैचारिक संदर्भों में निरंतर विकसित होने वाली प्रवृत्ति है।


निष्कर्ष

हिंदी साहित्य में यथार्थवाद ने रचनात्मकता को सामाजिक संदर्भों में पुनर्परिभाषित करने का काम किया है। भारतेन्दु युग से लेकर प्रेमचंद के युगांतकारी प्रयासों और प्रगतिशील आंदोलन तक, फिर नई कहानी से होते हुए समकालीन साहित्य तक यथार्थवाद एक सुदीर्घ यात्रा का साक्षी रहा है। इस यात्रा ने साहित्य को समाज का दर्पण बना दिया, जिसमें आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक समस्याएँ स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं।

विद्यार्थियों और शोधार्थियों के लिए यथार्थवादी साहित्य का अध्ययन परीक्षा की दृष्टि से भी उपयोगी है। इससे उन्हें न केवल साहित्य के विकासक्रम की समझ मिलती है, बल्कि वे समय-समाज की समस्याओं को गहराई से जानने में सक्षम होते हैं। शोध की दृष्टि से यथार्थवाद विविध अंतःविषयी संवादों के लिए द्वार खोलता है, जहाँ साहित्य, इतिहास, समाजशास्त्र, राजनीति विज्ञान और मनोविज्ञान के अध्ययन एक दूसरे को समृद्ध करते हैं।

अंततः, यथार्थवाद हमें याद दिलाता है कि साहित्य का दायित्व केवल सौंदर्य की अभिव्यक्ति तक सीमित नहीं होना चाहिए, बल्कि उसे सामाजिक जिम्मेदारियों और वास्तविकताओं से जुड़कर मार्गदर्शक की भूमिका भी निभानी चाहिए। परीक्षाओं की तैयारी करने वाले विद्यार्थी इस संपूर्ण परिप्रेक्ष्य को समझकर अपनी उत्तर-लिखन क्षमता को न सिर्फ समृद्ध कर पाएँगे, बल्कि एक व्यापक दृष्टि के साथ साहित्यिक आलोचना और विश्लेषण में भी प्रगल्भता अर्जित कर सकेंगे।


अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)

1. हिंदी साहित्य में यथार्थवाद का आरंभ कब और कैसे हुआ?
यथार्थवाद का आरंभिक संकेत भारतेन्दु युग में मिलता है, परंतु इसका व्यवस्थित और ठोस रूप प्रेमचंद तथा प्रगतिशील आंदोलन के दौर में उभरकर सामने आया, जहाँ साहित्य ने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं को केंद्र में रखकर रचना की।

2. यथार्थवादी साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं?
यथार्थवादी साहित्य में वास्तविक जीवन की समस्याओं का निष्पक्ष चित्रण, स्पष्ट भाषा-शैली, मध्यवर्गीय तथा श्रमिक वर्ग के पात्रों की उपस्थिति, जाति-व्यवस्था, गरीबी, शोषण, लैंगिक भेदभाव जैसे मुद्दों का गहरा विश्लेषण इसकी प्रमुख विशेषताएँ हैं।

3. प्रेमचंद को हिंदी यथार्थवाद का स्तंभ क्यों माना जाता है?
प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं—”गोदान”, “सेवासदन”, “रंगभूमि”—में भारतीय ग्रामीण जीवन की समस्याओं, आर्थिक विषमताओं तथा सामाजिक कुरीतियों का यथार्थवादी चित्रण किया। उन्होंने साहित्य को आदर्शवाद से बाहर निकालकर जमीनी हकीकत से जोड़ा, जिससे हिंदी साहित्य में यथार्थवाद को गहरी नींव मिली।

4. समकालीन हिंदी साहित्य में यथार्थवाद की क्या भूमिका है?
समकालीन लेखन में यथार्थवाद बदलते शहरी परिदृश्य, उपभोक्तावाद, तकनीकी प्रभाव, पर्यावरणीय संकट, सांप्रदायिक तनाव, और वैश्विक संदर्भों से जुड़े नए मुद्दों का विश्लेषण करता है। इस तरह यह वर्तमान समय में भी साहित्य को सामाजिक चेतना का उपकरण बनाए हुए है।


संदर्भ (External Links)

(आगे के गहन अध्ययन हेतु आप रामविलास शर्मा, नामवर सिंह तथा मैनेजर पांडेय जैसे प्रतिष्ठित साहित्य आलोचकों की पुस्तकों और शोधपत्रों का सहारा ले सकते हैं।)


आंतरिक लिंक (Internal Links):


इस लेख के माध्यम से ‘हिंदी साहित्य में यथार्थवाद’ की अवधारणा, इसके विभिन्न चरण, प्रमुख रचनाकारों, आंदोलनों और समकालीन प्रसंगों का विस्तारपूर्वक विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है, जो विद्यार्थियों, शोधार्थियों तथा परीक्षा की तैयारी करने वालों के लिए अत्यंत लाभप्रद सिद्ध होगा।

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